उम्र के कारण दादी ऊँचा सुनती थी।
और शायद इसी कारण शहर से लौटने पर वो उनके यहां ठहरना पसंद करता था।
उसे अपने आप से बडबडाने की आदत जो थी।
उस रात भी कमरे की बत्ती डिम कर
वो ऐसे ही कुछ बक रहा था,
कमरे में सब कुछ बिखरा पड़ा था...
उसी पसारे में कब आँख लग गयी उसे कुछ याद नहीं...
अगली सुबह आँख खुली तो बिस्तर की बगल में
उसके पसंदीदा पकौडे़ और चटनी रखी थी।
उसे याद है...
बचपन मे जब वो मैदान से चोटील हो घर लौटता
तो दादी उसके लिए ऐसे ही पकौडे़ और चटनी बना कर देती।
उसे अब भी याद है ...
कैसे वो उनकी गोदी में बैठ
जमकर पकौडे़ गटकता,
और फिर दादी उसके छिले घुटने पर मलम लगाती...
वो तो पकौडों के चक्कर मे अपने जख्म जैसे भूल जाता।
आज भी फिर वही पकौड और चटनी देख वो मुस्कुरा उठा...
उसे कितना कुछ याद था...
पर वो ये भूल गया...
के सुर्खियाँ दादी के चेहरे पर हैं...
आँखों पर नहीं
-वि. वि. तळवणेकर
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